वर्षों बाद वही पुकार
भीड़ को चीरती
पहुँची कानों से दिल तक।
रुक गए कदम, धड़क उठा मन,
पलटकर देखा
हाँ, तुम ही थे।
हजारों की भीड़ में
सिर्फ तुम ही दिखे,
और तुम्हारी नज़र
जमी रही हम पर ही।
पल भर में तैर गए आँखों पर
बीते वर्षों के दृश्य,
मूक अधरों से पूछतीं निगाहें
कहाँ थे इतने साल,
कहाँ भटके रहे?
अब भी पहने हो वही कुर्ता
जिसने खोल दिया
तुम्हारे मन का राज़,
और मेरा भी छुपा हुआ हाल।
बरसों से दबी संवेदनाएँ
तुमने एक नज़र में पढ़ लीं।
मन चाहता था,
जमाने को भूल
सिर रख दूँ तुम्हारे कंधे पर
और रो लूँ खुलकर।
पर सहसा आवाज गूँजी—
“चलो भी, कहाँ खो गई?”
और बीते वर्ष को वहीं तज
फिर लौट गए,ला खड़ा किया
यथार्थ की कठोर ज़मीन पर।
आज न जाने क्यों,
बेमतलब झगड़कर, रो-रोकर
तकिया भिगो बैठी हूँ
शायद वही इतने वर्ष का
पुराना दर्द हावी हो गया
आज दिल पर।
सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर