नीर-सी बहती रही, प्रेम की गली में कहीं,
बोल-सी सिमटी रही, रागिनी खिली नहीं।
पांव की सदा थी ओस, टूटकर बिखर गई,
दिल ने की कई कोशिशें, प्रीत तो मिली नहीं।
रूप की लहर चली, धूप की गिरह पड़ी,
तन की आग में जला, सांस भी रूकी नहीं।
नेह की नदी को छोड़, देह पर नज़र टिकी,
प्रीत की व्यथा कभी, तुमने तो सुनी नहीं।
स्पर्श की तपन सही, मन बिछ गया तले,
लाज की लिपि उभर, देह की चली नहीं।
प्रीत वो नहीं कहूँ, जो बूंद-बूंद गल रहा,
प्रेम तो वो सीप है, जल बीच मोती रही।
चकोरी बनके चांद की, खुद की रोशनी गई,
रही रात की दुल्हन, मन में तो बसी नहीं।
बावरा रहा था बस, रातभर चांद भी,
जो बीत गई रात तो, खोजने गया नहीं।
पूर्णिमा सुमन,(धनबाद, झारखंड)