दोस्ती

तुम्हारी यादों की चप्पल पहनकर  

चलता हूँ गली में

कभी रुक जाता हूँ उस मोड़ पर  

जहाँ तुम्हारी हँसी अटकी थी  

किसी पुराने दिन की डाल पर  

हमारी दोस्ती वो पन्ना थी  

जिसे कभी किताब से न निकाला

समय की हवा चली तो  

वह पन्ना खो गया

पर उसकी छाया अब भी है  

हर अध्याय के नीचे

चार दिन के मेले थे 

जहां मैं और तुम 

बचपन में साथ खेले थे।

तुम्हारे बिना ये शहर  

एक अधूरा खेल है 

जिसमें एक खिलाड़ी कम है

गेंद तो है पर अब हार जीत की 

खुशी नहीं।

वो हँसी नहीं।  

कभी-कभी रात में  

तुम्हारी सी आवाज़ 

सुनाई देती है

मुड़कर देखता हूँ तो  

खाली होता है कमरा

समझ जाता हूँ 

यही तो है दोस्ती 

जो दिखती नहीं पर  

हमेशा साथ रहती है 

हम अलग-अलग रास्तों पर चले 

पर कुछ कदम साथ-साथ चले

वही कदम अब भी  

मेरी ज़िंदगी की धुन में हैं  

एक ताल की तरह  

जो कभी बिगड़ती नहीं।



डॉ. इन्दुमति सरकार