बसा जब से आँखों में चेहरा तुम्हारा ।
हरिक सू नज़र आए जलवा तुम्हारा ।।
गवारा नहीं मुझको ये बात हरगिज़ ।
ज़माने में चर्चा हो मेरा तुम्हारा ।।
बुलन्दी प दिन रात क़िस्मत थी मेरी ।
मिला है मुझे साथ जब से तुम्हारा ।।
सभी काम छोड़े चली आई दौड़े ।
मिला मुझको जब भी इशारा तुम्हारा ।।
किए हैं सितम मुझपे अपनों नें मेरे ।
भला नाम लेलूँ मैं कैसे तुम्हारा ।।
मिरी तश्नगी पास रहने दे मेरे ।
ये दरिया सम्भालो ये सारा तुम्हारा ।।
जो क़िस्मत का लिख्खा है ऐ "राज़" होगा ।
कहाँ है क़ुसूर इसमें मेरा तुम्हारा !!
अलका "राज़ "अग्रवाल , भोपाल