ग़ज़ल

 बसा जब से आँखों में चेहरा तुम्हारा ।


 हरिक सू नज़र आए जलवा तुम्हारा ।।




गवारा नहीं मुझको ये बात हरगिज़ ।


ज़माने में चर्चा हो मेरा तुम्हारा ।।




बुलन्दी प दिन रात क़िस्मत थी मेरी ।


मिला है मुझे साथ जब से तुम्हारा ।।




सभी काम छोड़े चली आई दौड़े ।


मिला मुझको जब भी इशारा तुम्हारा ।।




किए हैं सितम मुझपे अपनों नें मेरे ।


भला नाम लेलूँ मैं कैसे तुम्हारा ।।




मिरी तश्नगी पास रहने दे मेरे ।


ये दरिया सम्भालो ये सारा तुम्हारा ।।




जो क़िस्मत का लिख्खा है ऐ "राज़" होगा ।


कहाँ है क़ुसूर इसमें मेरा तुम्हारा !!



                         अलका "राज़ "अग्रवाल , भोपाल